Saturday, 25 July 2015

दीवार कठोरता का प्रतीक है, लेकिन यहां बच्चों के कोमल मन को खंगाला जा रहा है

           दीवार पत्रिका और रचनात्मकता

                                      -निर्मला तोदी

दीवार पत्रिका के बारे में लगातार जानकारी मिल रही थी और मैं उससे काफी प्रभावित भी थी और अभी और भी ज्यादा हूं। इस विषय में महेश पुनेठा जी से फोन पर लंबी बातें भी हुई। पुस्तक के आते ही फोन करके पुस्तक मंगवाई। पुस्तक पहुंची भी उसी स्पीड में। एक बार मैं पूरी पुस्तक पढ़ डाली, फिर दुबारा पढ़ना पड़ा। महेश जी इस अभियान को बड़ी ही संजीदगी से चला रहे हैं और लोग भी उसी तत्परता से जुड़ते जा रहे हैं। सभी अध्यापक और छात्र बधाई के पात्र हैं। "दीवार पत्रिका एक अभियान' का एक ब्लाग भी है और मेल से भी इस अभियान की बहुत सी रोचक और नियमित जानकारी मिलती है। फिर भी पुस्तक पढ़ना इस अभियान का एक सार्थक स्वरूप है। पुस्तक में महेश जी के अनुभव, अन्य अध्यापकों के अनुभव, छात्रों की राय और अनुभव दीवार पत्रिका की कार्यशाला का विस्तृत वर्णन, दीवार पत्रिका क्यों और कैसे बच्चों को इससे होने वाले लाभ का विस्तृत लेखा जोखा है। जैसे कि यह भी गंगोत्री से गंगासागर की यात्रा हो। इसका उद्गम तो हैं, टेढ़ी-मेढ़ी राहें भी हैं, अविरल बहने वाली धारा है। इसमें गंगासागर नहीं है इसका समापन कहीं नहीं है।
इस पुस्तक में महेश जी के पंद्रह वर्षों की लंबी यात्रा के अनुभव हैं।  जिसमें संघर्ष भी हैं और सफलता भी। एक सुखद यात्रा है। पुनेठा जी वर्ष 2000 के आसपास डीपीईपी के शिक्षक प्रशिक्षण में नए-नए शिक्षण के प्रयोगों से परिचित हुए। जिसमें एक "बाल अखबार' भी था। उन्हें यह बच्चों के रचनात्मकता के विकास की एक सार्थक और उपयोगी गतिविधि लगी। वे उससे बहुत प्रभावित हुए।
प्रशिक्षण से लौटने के बाद प्राथमिक विद्यालय "कुंजनपुर' में महेशजी ने सबसे पहले "बाल अखबार' का प्रयोग शुरू किया। बाल साहित्य से, बाल पत्रिकाओं से सामग्री इकट्ठी करके "बाल अखबार' तैयार किया जाने लगा लेकिन एकल अध्यापकीय स्कूल में कार्यभार अधिक होने के कारण बच्चों  में रुचि जगाने के  समय के अभाव के कारण यह उपक्रम चल नहीं पाया। फिर भी नए -नए प्रयोग लगातार होते रहे। कहते हैं ना कि काम करते-करते अनुभव होता है, अनुभवों के आधार पर आगे सफलता मिलती है। महेश जी लगातार हिम्मत और उत्साह के साथ जुटे रहे। वर्ष 2009 में "राजकीय इंटर कालेज' देवस्थल आए। वहां पर दीवार पत्रिका का पहला अंक "नवांकुर' निकला, जो रोलर बोर्ड पर बनाया गया था। इस अंक में भी पत्र-पत्रिकाओं से रचनाओं का संकलन करके चिपकाया गया था। उन्होंने महसूस किया कि बच्चों को अधिक से अधिक काम करने के अवसर मिलने चाहिए क्योंकि बच्चे सबसे अधिक आनंद खुद करने में महसूस करते हैं। इसलिए उनकी लिखी रचना दीवार-पत्रिका में लगनी चाहिए। इस सोच के साथ नवांकुर का दूसरा अंक बच्चों की लिखी कविताओं का काव्य-विशेषांक निकला। एक छात्रा को पत्रिका का संपादक नियुक्त किया गया, 10-15 बच्चों का संपादकीय मंडल का गठन हुआ। भूमिका विवरण भी हुआ। 30-35 बच्चों का एक समूह बनाया गया जिसे "बाल बौद्धि प्रकोष्ठ' नाम दिया गया। सभी काम छात्र रुचि लेकर कर रहे थे, महीने में एक पत्रिका भी आ रही थी। फिर भी महेश जी संतुष्ट नहीं थे। क्योंकि पत्रिका में अभी भी बहुत सी साभार सामग्री थी।
उनके अनेक अथक प्रयास और प्रयोगों द्वारा बच्चों में रचनाशीलता बढ़ रही थी, फिर भी उन्हें महसूस हो रहा था कि बच्चों में अभी भी उत्साह बढ़ाना रुचि जगाना जरूरी है। बाद में यह देखा गया कि जो बच्चे दो-चार पंक्तियां भी नहीं लिख पाते थे, वे दो-चार पन्नों का संस्मरण लिखने लगे। उन्हें विषय दिए जाने लगे। बच्चों की भाषाई दक्षता बढ़ी। इससे उनके मन को पढ़ने का भी मौका मिला। इस दौरान बच्चों  से "मेरी किताब' भी बनवाई गयी। ये किताबें पुस्तकालय में सुरक्षित हैं। कभी-कभी दीवार पत्रिका में सामग्री कम पड़ जाने से सम्पादकीय इससे सामग्री भी ले लेते हैं।
जैसा कि सब प्रयोगों में होता है, दीवार पत्रिका में भी  काफी उतार चढ़ाव आए। बच्चे बीच-बीच में उदासीन हो जाते थे। लेकिन महेश जी हार मानने वाले नहीं थे। एक और बात वे बच्चों पर किसी भी प्रकार का दबाव नहीं डालना चाहते थे। वे कक्षाओं में पत्रिका का उद्देश्य समझाते थे। साथ ही साथ उसकी विकास यात्रा के बारे में भी बताते रहते थे। दीवार पत्रिका में फिर नया सम्पादक मंडल बना। पत्रिका का नाम रखा गया "कल्पना'
बच्चे अब पहले से बेहतर काम करने लगे। वे खुद सोचने लगे कि अंक में नया क्या दिया जाए। सम्पादकीय भी स्वयं ही लिखने लगे। मैं समझ सकती हूं कि एक अच्छा "गाइड', "गुरु' मिल जाए तो छात्र काम बहुत जल्दी सीख जाते हैं। रुचि लेने लगते हैं और नई-नई आइडिया आने लगती है।
पुस्तक में बच्चों के लिए कार्यशाला की विस्तृत जानकारी है। कार्यशाला के अनुभव को एक डायरी की तरह प्रस्तुत किया गया है जो सिर्फ दीवार पत्रिका के लिए ही उपयोगी नहीं है, अन्यथा भी चलाई जाए जो लाभ होगा। कार्यशाला में बच्चों के मनोविज्ञान को समझते हुए उनकी प्रतिभा और अभिरुचियों को पहचान कर, उन्हें नई दिशा में आगे बढ़ाना, नए अवसर प्रदान करना, समाज के प्रति संवेदनशीलता और सामूहिकता की भावना विकसित करना, इन सभी विषयों पर सजगता से काम करना था। उनके अनुभव बताते हैं यदि बच्चों की सृजनात्मकता को कम उम्र से ही प्रोत्साहित किया जाए और उन्हें अनुकूल माहौल मुहैया कराया जाए तो उसके परिणाम बहुत सकारात्मक होते हैं। बच्चों को लगातार अध्ययन के लिए प्रेरित करना और लेखन की बारीकियों से भी अवगत कराना जरूरी है। उन्हें रूपक और बिंबों का प्रयोग भी सिखाया गया जिनके कुछ प्रयोग पुस्तक में भी है। जो बहुत प्रभावशाली और सुंदर है। मुझे महेश जी की सबसे खास बात लगी कि "कार्यशालाओं की सफलता इस बात पर सबसे ज्यादा निर्भर करती है कि वहां बच्चों को आनंद आए। रचनात्मकता के प्रति सम्मान पैदा हो, वहां डांट डपट और किसी भी प्रकार का दबाव न हो, कार्यशालाओं में विभिन्न विधाओं के विशेषज्ञ हो और बाल मनोविज्ञान की समझ रखते हों।" कार्यशाला में सभी अच्छा हो जरूरी नहीं लेकिन अगर उनमें लिखने-पढ़ने की कुछ करने की अभिरुचि हो जाए तो वह कार्यशाला की बड़ी उपलब्धि होगी।
कार्यशाला के बारे में पढ़ते-पढ़ते मेरा मन मुझसे कह रहा था कि काश मुझे भी ऐसा सौभाग्य मिला होता, ऐसा प्लेटफार्म तो मैं भी आज बेहतर काम कर पाती। आजकल बहुत सी संस्थाएँ, क्लब, कार्यशालाएँ (ॠड़द्यत्ध्त्द्यत्ड्ढद्म ड़ठ्ठथ्र्द्र, च्द्वथ्र्थ्र्ड्ढद्ध ड़ठ्ठथ्र्द्र, कन्द्यद्धठ्ठ ड़थ्ठ्ठद्मद्मड्ढद्म) हैं लेकिन दीवार पत्रिका एक लगातार चलनेवाली प्रक्रिया हैं जिसमें सभी स्कूल जानेवाले बच्चे हिस्सा ले सकते हैं। अलग से दर्ज नहीं कराना पड़ता है।
बच्चे स्वयं दीवार पत्रिका को लेकर किस तरह सोचते हैं यह जानना भी बहुत जरूरी है। उस पर ही कार्य योजना की सफलता निर्भर करती है। पुस्तक में बच्चों की राय उनके अनुभव और सुझाव भी दिए गए हैं। अलग-अलग विद्यालयों के दीवार पत्रिका के संपादकों के साक्षात्कार भी हैं। जिनको पढ़कर मालूम होता है कि वे पत्रिका को लेकर बहुत गंभीर और सजग हैं। बड़ी आशाएँ रखते हैं। उनसे पत्रिका की आख्या भी लिखवाई गई है, वे मेहनत करना चाहते हैं। पत्रिका के प्रति सकारात्मक नजरिया रखते है। उनके अनुसार इससे उनकी भाषा परिष्कृत हुई है। लेखकीय क्षमता और आत्म वि·ाास में वृद्धि हुई है। हिचकिचाहट दूर हुई है और पढ़ने का शौक बढ़ा है।
किसी प्रयोग की प्रमाणिकता उसकी व्यापकता से सिद्ध होती है। दीवार पत्रिका से संबंधित यह प्रयोग चार दर्जन से अधिक विद्यालयों में प्रारंभ हुआ है और निरंतर बढ़ता जा रहा है। पुस्तक में शिक्षकों के अनुभव और राय दिए गए हैंं।
उत्तरकाशी से "रेखा चमोली' का कहना है, "इस अभियान के बाद मैं बच्चों को ज्यादा मुखर, आत्मवि·ाासी, स्वयं पढ़ने और सीखने को उत्सुक तथा स्कूल की हर गतिविधि में भाग लेने को तैयार पाती हूँ।' नाचनी पिथौरगढ़ से "राजीव जोशी' का कहना है, "बच्चों में दीवार पत्रिका के पहले और बाद में स्पष्ट अंतर दिखाई पड़ता है, बच्चों ने महंगाई, भ्रष्टाचार, कन्या भ्रूण हत्या, पर्यावरण आदि विषयों पर कविताएँ लिखी। दीवार पत्रिका  बनाने की प्रक्रिया बच्चों की प्रिय और नियमित गतिविधि बन गई।'
चिंतामणि जोशी का कहना है कि वे दीवार पत्रिका की ताकत को लेकर बहुत आशान्वित हैं। वे दीवार पत्रिका की भाषाई दक्षता और रचनात्मकता की अभिव्यक्ति का सशक्त साधन मानते हैं। उन्हें अनुभव हुआ कि बच्चों का मन कोमल है, कहीं भी कभी भी विचलति हो सकता है। कोई भी उन्हें बरगला सकता है। इसलिए मार्गदर्शक के आँख, कान खुले होना बहुत जरूरी  है।
नरैनी बांदा उत्तरप्रदेश से प्रमोद दीक्षित मलय जी दीवार पत्रिका कोे गांव के प्रमुख स्थानों पर भी टांगते हैं। लोग न केवल पढ़ते हैं अपनी प्रतिक्रिया भी देते हैं। "दीवार पत्रिका' स्कूल की चहारदीवारी लांघकर समाज  में भी अपना प्रभाव और संबंध स्थापित करते हुए बदलावों की आधारभूमि बन सकती है। पुस्तक में दीवार पत्रिका क्या है? क्यों है? कैसी होनी चाहिए, कैसी बनाई जाए, इसके निर्माण की चुनौतियाँ, अनुभव, दीवार पत्रिका के लिए रोचक सामग्री, उसके रुाोत, साधन, तरीके, नियम, स्थाई स्तम्भ क्या हो, क्या हो सकते हैं और रोचक गतिविधियाँ, "कार्यशाला' का विस्तृत और संंपूर्ण ब्यौरा है। दीवार पत्रिका "क्यों' में बारह कारण विस्तार से दिए गए हैं। जिसमें अभियान की उपयोगिता और विकास के बारे में जानकारी मिलती है। पुस्तक में बच्यों की रचनाएँ भी छपी हैं बच्चों के काम करते हुए की तस्वीरें भी हैं।
आज टेलीविजन और टेक्नोलॉजी के जमाने में बच्चे किताबों से दूर जा रहे हैं। दीवार पत्रिका बच्चों को फिर से पुस्तकालय लेकर जा रही है। उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित कर रही है। जो बच्चे किसी भी कारण से विद्यालय की दीवार पत्रिका में भागीदारी नहीं ले सकते है, उन्हंे पढ़ते हैं और आकर्षित होना भी स्वाभाविक है। इस तरह दीवार पत्रिका की रोशनी पूरे विद्यालय को चकमकाती जरूर होगी।
आज पढ़ाई नौकरी पाने, कैरियर बनाने का साधन मात्र रह गई है। अभिभावक भी यही चाहते हैं कि बच्चे विज्ञान, कामर्स लेकर पढ़े। भाषाओ के प्रति विशेषकर हिन्दी के प्रति सभी निरुत्साहित हैं। हमें समझना चाहिए कि भाषा और साहित्य हमें परिष्कृत करता है। स्कूल में दीवार पत्रिका से जुड़कर वे अन्य विषय तो पढ़ते ही हैं, साहित्य के प्रति रूझान भी होता है। साहित्य उन्हें बहुर्मुखी बनाता है। बच्चों में यह समझ पनपती है कि उन्हें किन विषयों में रुचि है। वे सही विषय का चयन कर सकते है।
दीवार कठोरता का प्रतीक है, लेकिन यहां बच्चों के कोमल मन को खंगाला जा रहा है। वे सामूहिकता में काम करना सीख रहे हैं। मेरी समझ में "अभियान' नाम भी बहुत ही उपयुक्त है, क्योंकि यह कार्य एक बड़े अभियान के रूप में पूरे देश में फैलाने का संकल्प लिए हुए दिन दुगुना रात चौगुना बढ़ रहा है। पुस्तक पढ़कर दीवार पत्रिका की जो विस्तृत जानकारी मिली है वह इसके उद्देश्य की सार्थकता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। पुस्तक "दीवार पत्रिका और रचनात्मकता' अभियान का एक ऐसा सार्थक फल है जो इस वृक्ष को फैलाने में बीज रूप से काम करेगा। इसे पूरे देश में फैलाने की मनसा को तीब्र करेगा।


Tuesday, 21 July 2015

दीवार पत्रिका जैसा प्रयोग मेरे जीवन में...

कुछ माह पहले लोकेश भाई से मुलाकात हुयी . भाषा को लेकर बहुत सारी बातें हुयी . उनके पत्रकारिता जीवन से जुड़े अनुभवों को सुना. वहां उन्होंने बच्चों की रचनात्मकता को सामने लाने के लिए बच्चों के अखबार जैसा कुछ काम किया. मुझे उसके बारे में जानना बहुत रुचिकर लागा.आशा है भविष्य में हमें उनके अनुभव विस्तार से जानने  को मिलेंगे. अभी प्रस्तुत है 'दीवार पत्रिका और रचनात्मकता ' को लेकर उनके विचार जिसे भाई राजीव शर्मा ने मुझे मेल से भेजा. 
दीवार पत्रिका जैसा प्रयोग मेरे जीवन में...
 दीवार पत्रिका के काम के बारे में मैंने काफी लोगों से सुना था..बागेश्वर के अध्यापक साथी हेम  पाठक से इस पर काफी चर्चा हुई थी..कुछ दिनों बाद महेश पुनेठा की दीवार पत्रिका किताब पढने का मौका मिला..काफी विस्तृत रूप से उन्होंने अपने अनुभवों को लिखा है..पढ़ कर मज़ा आ गया...
ज़यादा अच्छा इस लिए भी लगा क्योंकि अपने निजी जीवन में मै दीवार पत्रिका जैसी चीज़ का ही उपयोग काफी दिनों से कर रहा हूँ...
पत्रकारिता छोड़ने के बाद सबसे जयादा चिंता मुझे यही रहती है की कहीं लिखना छूट न जाए..पढना तो मुझे हमेशा से ही भाता है और कहीं न कहीं इसके लिए वक़्त निकाल ही लेता हूँ पर लिखना कई बार हो नहीं पाता..इतनी भागा दौड़...इतने सारे मुद्दे....कभी कभी तो मन करता है की छोड़ों यह काम और फिर वापिस पत्रकारिता मे लौट जाओं...
अच्छी बात यह है की घर का माहोल काफी अलग है...मै और अर्पिता अक्सर यह ही बात करते हैं की कैसे अपनी लेखनी को और बेहतर बनाये...औरइसके लिए जरुरी है अपने आप को प्रेरित करते रहना...
मै तो हमेशा अपने आप को लिखने के लिए प्रेरित करता रहता हूँ...इसके लिए मैंने एककाम शुरू किया जो काफी हद तक दीवार पत्रिका जैसा ही है ....२०१४ में अल्मोड़ा शिफ्ट करने के बाद अपने घर में दीवार पर एक चार्ट लगाया है औरजो भी लिखता हूँउसे उस चार्ट पर दर्ज कर देता..कविता, शायरी और लेख..
ऑफिस से जब भी घर आता हूँ..सबसे पहले नज़र पड़ती हैउस दीवार पर टंगे चार्ट पर..कई दिन तक जब उस चार्ट को ख़ाली पाता हूँ तो बहुत गुस्सा आता है खुद पर की क्यों मै और मेहनत नहीं करता लिखने के लिए....
खैर कुछ वक़्त निकाल कर मैंने कुछ अच्छे लेख और कविता लिखडाली.... एक लेख तो विदेश की एक मैगज़ीन में भी छप गया और पैसा भी इतना मिला की फरवरी माह में उससे नार्थ ईस्ट का एक टूर भी लगा लिया..
सबसे ज़यादा ख़ुशी तब हुई जब मेरी तरह हीअर्पिता ने भी खुद को लिखने के लिए प्रेरित करने की लिए ऐसे ही दीवार पर चार्ट लगाया..हालाँकि अर्पिता मुझसे कई गुना बेहतर लेखक है..अभी भी रिपोर्टर के रूप में काम करती हैं..बहुतउम्दा लिखती हैं.... पर शायद हर कोई अपने आप को और बेहतर बनाने की कोशिश करता है और यह ही सोच कर अर्पिता ने भी यह कोशिश की...
इन सब के बीच सबसे मज़ेदार चीज़ हुई की हमारी प्यारीसी नन्ही सी दोस्त, बिटिया मनु ( हमारे मकान मलिका संजय जोशी की बेटी)  ने भी ठीक वैसा ही चार्ट दीवार पर लगाया और जो भी वह लिखती उस पर चिपका देती..उस की लिखी कविता पढ़ कर खूब मज़ा आया..और तो और हमारे दो दोस्त दुलोउस और सुमन जब हमसे मिलने अल्मोड़ा आये तो मनु की लिखने की कोशिश से काफी प्रभावित हुए और दिल्ली वापिस जाने के बाद वहां से उन्होंने कुछ किताबे कूरियर से अल्मोड़ाभेज दी मनु के लिए..
महेश भाई की दीवार पत्रिका के वैसे तो बहुत सारे फायदे हैं जैसा उन्होंने अपनी किताब मे दर्ज किया है पर मेरे खुद के अनुभव से एक सबसे बड़ा फायदा है खुद को मोटीवेट करने का..लिखने के प्रति
उन्होंने किताब की शुरू में लिखा भी है की इस तरह की पत्रिका का उपयोग बच्चे ही नहीं बल्कि बड़े लोग भी कर सकते हैं...
इसी बीच पिथोरागढ़ आने का मौका मिला और ख़ुशी की बात यह हुई की महेश भाई से मिलने का मौका भी मिला...वह अपने व्यस्त जीवन से वक़्त निकाल कर सुबह होटल में ही मिलने चले आये...
बातचीत शुरू हुई और कब एक घंटे से ऊपर का वक़्त निकल गया पता ही नहीं चला..
बहुत सारे मुद्दों पर बात हुई...उनके अनुभवों को सुनने से इतना होसलों मिलता है...
और ख़ुशी होती है यह जानकार की कैसे अगर शिक्षक चाहे तो एक विचार का उपयोग अपने स्कूल के बच्चों की मदद’ के लिए कर सकता है..
गुफ्तुगू के दौरान ये भी निकला की मुझे अपने अनुभव ( चार वर्ष तक मैंने कैसे टाइम्स ऑफ़ इंडिया के एक संस्करण जो पूरी तरह से बच्चों के लिए था का सम्पादन किया और उस संस्करण की २००० प्रतियों सेशुरुआत हुई थी और जब मैंने टाइम्स छोड़ा तब उसकी चालीस हज़ार प्रतियाँ बिकती थी) लिख कर महेश भाई से साझा करने चाहिए...
महेश भाई के इस विचार मेंमुझे दम लगा क्योंकि नंबर्स से ज़यादा मसला यहाँ उन अनुभवों का है जो मुझे इस संस्करण पर काम करते हुए हुए...
कैसे बच्चों के लिए हम टॉपिक्स का चयन करते..कैसे बच्चे और अध्यापक मिल कर कई दफा पूरा का पूरा अखबार निकाल लेते..महेश भाई से बात करते करते मुझे अपनेटाइम्स ऑफ इंडिया के दिनो की याद आ गयी..आँखों केसामने पूरा अतीत सामने आ गया...
कुछ देर में महेश भाई ने विदा ली और मैंने निश्चय किया कीअपने अनुभवों को लिख कर जरुर साझा करूँगा..लिखना जारी है...इंशाल्लाह कुछ दिनों में इस पर जरुर लिखूंगा...
और साथ ही जारी रहेगा दीवार पत्रिका जैसे प्रयोग से खुद को प्रेरित करते रहना...आने वाले दिनों में कोशिश करूँगा की महेश भाई का यह प्रयास ज़यादा से ज़यादा लोगों , बच्चों और बड़ों दोनों तक जाये क्योंकि इसका हमारे लिखने और पढने की क्षमता पर बहुत प्रभाव पड़ता है...

Tuesday, 24 March 2015

बाॅक्स फाइल से दीवार पत्रिका तक का सफर

     एन.सी.एफ. 2005 में विद्यालय एवं कक्षा के वातावरण को आनंददायी बनाने के लिए एक महत्वपूर्ण बात कही गई है कि जिस प्रकार कक्षा को उदार ,प्रजातांत्रिक बनाए जाने की जरूरत है ,उसी प्रकार स्कूल प्रशासन और प्रशासन तंत्र को भी। शिक्षक  केवल आदेश प्राप्तकर्ता न रहे बल्कि उसकी भी आवाज सुनी जाए और उसे इस प्रकार के निर्णयों की छूट हो जो कक्षा और स्कूल की तात्कालिक आवश्यकताओं को पूरा करने में सहायक हों। शिक्षकों  और उनके प्रमुखों के संबंध समानता और आपसी सम्मान पर आधारित होने चाहिए। साथ ही निर्णय बातचीत और विचार विमर्श के आधार पर हों।
    इस वातावरण को अभी धरातल में उतरने में भले समय लगने वाला है लेकिन हमारे बीच आकाश सारस्वत जी जैसे शिक्षा अधिकारी भी हैं जो बहुत पहले से इस अवधारणा पर चल रहे हैं। उनके शिक्षकों के साथ समानता और सम्मान के संबंध हैं। वे शिक्षकों की आवाज सुनने वाले अधिकारी हैं। शिक्षकों के भीतर ऐसी प्रेरणा भरते हैं कि शिक्षक सहर्ष  कार्य करने के लिए तैयार हो जाते हैं और पूर्ण मनोयोग से उसे अंजाम देते हैं। छः महिने से भी कम समय में दो सौ से अधिक विद्यालयों में दीवार पत्रिका अभियान को पहुुंचा देना तथा इस दिशा  में काम का शुरू हो जाना, इस बात का प्रमाण है। उनकी लोकतांत्रिक कार्यशैली का ही कमाल है कि उनके क्षेत्र के अधिकांश विद्यालयों में पुस्तकालय पूरी सक्रियता के साथ संचालित हैं। वे न केवल पुस्तकालय संचालित करने के  लिए प्रेरित करते हैं बल्कि समय-समय पर अच्छी पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों से संस्थाध्यक्षों और शिक्षकों को परिचित कराते रहते हैं। अच्छा साहित्य उन तक पहुंचाने के लिए एक अभियान की तरह कार्य करते हैं। अपने समाज के प्रति उनके सरोकार और प्रतिबद्धताएं अद्भुत हैं। वे एक अधिकारी की तरह नहीं बल्कि एक समाज सेवक की तरह काम करते हैं। समाज के हित में चलाए जा रहे किसी भी सरकारी या गैर सरकारी अभियान में उनकी भागीदारी हमेशा  बढ़चढ़ कर रहती है। इसी के चलते वे शिक्षकों के साथ-साथ उच्च अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों के भी चेहते हैं। यह हमारे लिए बड़ी प्रसन्नता की बात है कि दीवार पत्रिका अभियान से जुड़ा उनका एक अनुभव हमें प्राप्त हुआ है जिसके लिए हम उनके बहुत आभारी हैं। प्रस्तुत है उनका यह अनुभव-

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बाॅक्स फाइल से दीवार पत्रिका तक का सफर
                                   -आकाश  सारस्वत

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अगस्त 2010 में मैंने बागेश्वर जनपद के गरूड़ विकासखंड मंे कार्यभार ग्रहण किया। अपने विद्यालय भ्रमण के दौरान मैंने पाया कि अधिकांश  विद्यालयों का वातावरण नीरस और भयग्रस्त है। अध्यापक और विद्यार्थियों के बीच संवादहीनता की स्थिति दिखाई पड़ती थी। विद्यार्थी शिक्षकों से प्रश्न पूछने पर हिचकते थे। संवादहीनता खत्म करने के लिए मैंने विद्यालयों में बाल शिकायत व सुझाव पेटिका का प्रयोग प्रारम्भ करवाया ताकि बच्चे अपने मन की बात शिक्षक तक पहुंुचा सकें तथा समय-समय पर उन बातों पर चर्चा-परिचर्चा कर मैत्रीपूर्ण वातावरण का निर्माण किया जा सके। शुरूआती तीन महिनों तक इस दिशा में कोई खास सफलता नहीं मिली किंतु अध्यापकों के प्रयासों से विद्यार्थियों ने अपने मन की बात उस पेटिका में डालनी शुरू की। उनकी मन की झिझक भी कम होने लगी। अध्यापक और विद्यार्थियों के बीच निकटता बढ़ने लगी। धीरे-धीरे यह प्रयोग समस्त राजकीय प्राथमिक विद्यालयों के साथ-साथ हाईस्कूल और इंटर कालेजों में भी प्रारम्भ हो गया। छः माह होते-होते सकारात्मक परिणाम सामने आने लगे। बड़े रोचक अनुभव मिलने लगे। यहां एक उदाहरण देना चाहूंगा। बात राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय चोरसों की है। एक बच्चे ने लिखा कि मुझे गणित से डर लगता है तो वहां कार्यरत शिक्षक हेम चंद्र लोहुमी ने पहाड़े सिखाने की ऐसी प्रविधि विकसित की कि सभी बच्चे खेल-खेल में पहाड़े याद करने लगे और धीरे-धीरे बच्चों के मन से गणित का भूत दूर होने लगा। ऐसे ही कुछ प्रयास रा0उ०प्रा0वि0 पिगंलो में भी किए गए।
  माह अप्रेल 2011 में उक्त दोनों विद्यालयों के शिक्षक हेम चंद्र लोहुमी और सुरेश चंद्र सती सेवारत शिक्षक प्रशिक्षण माड्यूल निर्माण कार्यशाला में देहरादून गए। वहां पर उन्होंने इस प्रयोग से संबंधित अनुभवों को शेयर किया, जिन पर व्यापक चर्चा-परिचर्चा हुई। अंततः इस प्रयोग को सेवारत शिक्षक प्रशिक्षण के माड्यूल में शामिल कर लिया गया। वर्ष  2011-12 से उत्तराखंड के सभी प्राथमिक विद्यालयों में बाॅक्स फाइल नाम से लागू किया गया। वर्श 2012-13 में उच्च प्राथमिक विद्यालयों में भी लागू कर दिया गया।
  बाॅक्स फाइल के माध्यम से विद्यार्थियों में सृजनात्मक क्षमता विकास को प्रोत्साहित किया गया । प्रत्येक विद्यार्थी की अलग-अलग फाइल बनायी गयी जिसमें विद्यार्थी की कविता,कहानी ,पेंटिंग एवं अन्य विचारों को संगृहित किया जाने लगा। इससे बच्चों की अभिरूचियों और आदतों के विशय में अध्यापकों को पता चलने लगा। अध्यापक और विद्यार्थियों की पारस्परिक दूरियां भी कम होने लगी। पठन -पाठन  का बेहतर वातावरण बनने लगा। बाॅक्स फाइल के लिए परियोजना की ओर से प्राथमिक में बीस रुपए और उच्च प्राथमिक में तीस रुपए प्रति विद्यार्थी धनराषि दी जाती थी।
   बाद में यह धनराषि बंद हो गई फलस्वरूप यह योजना भी सरकार की अन्य योजनाओं की तरह ही दम तोड़ने लगी। लेकिन हमने इस प्रयोग को  विकास खंड के हर विद्यालय में जारी रखा। उसी दौरान जिलाधिकारी और क्षेत्रीय विधायक के निर्देश पर मुझे बागेश्वर जनपद के अति दुर्गम विकास खंड कपकोट की चरमराती शिक्षा व्यवस्था को संभालने के लिए वहां का अतिरिक्त कार्यभार दे दिया गया। पहली की अपेक्षा अब मेरा कार्यभार दुगने से भी अधिक हो गया। वहां भी बाॅक्स फाइल पर फोकस करते हुए सभी विद्यालयों में शुरू करवाया।
लेकिन बाद में इसकी समीक्षा करने पर पाया कि प्रत्येक विद्यार्थी की प्रतिभा के विशय में मात्र अध्यापक कंो ही जानकारी थी। उसके अन्य साथी और अध्यापक उससे अनजान ही रहते थे। बाद में सभी के संज्ञान में लाने के उद्देश्य से एक चार्ट पेपर पर इसे चिपकाना शुरू किया तथा दीवार पत्रिका का उदय हुआ। यह कार्य अक्टूबर 2014 से शुरू हुुआ।
  इसी बीच कपकोट विकासखंड के रा.उ.प्रा.वि. सिमगढ़ी में कार्यरत कर्मठ अध्यापक हेम चंद्र पाठक ने बताया कि पिथौरागढ़ जनपद के नवाचारी शिक्षक महेश पुनेठा काफी समय से दीवार पत्रिका पर कार्य कर रहे हैं तथा वहंा के अन्य कई शिक्षकगण भी स्वैच्छिक रूप से कार्य कर रहे हैं। तब एक व्यापक कार्य योजना बनाकर गरूड़ और कपकोट के  समस्त विद्यालयों में युद्धस्तर पर दीवार पत्रिका पर काम  शुरू हुआ। अक्टूबर 14 में हेम चंद्र लोहुमी और हेम चंद्र पाठक ने दीवार पत्रिका का प्रथम अंक निकाला। उसके बाद दोनों विकास खंडों के लगभग चार सौ विद्यालयों में दीवार पत्रिका निकालने की दिषा में प्रयास प्रारम्भ हो गए। अभी तक लगभग दो सौ पच्चीस से अधिक  विद्यालयों से दीवार पत्रिका विधिवत निकलने लगी हैं। सिमगढ़ी,गोलना ,दुकुरा आदि विद्यालयों ने तो  अंग्रेजी भाषा  में भी दीवार पत्रिका के अंक निकाले हैं। आगे संस्कृत और कुमाऊंनी में भी अंक निकालने की योजना है।
   विद्यालयों में बाल मैत्रीपूर्ण वातावरण का निर्माण तथा आनंद के साथ सीखने में दीवार पत्रिका की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण होती जा रही है तथा खेल-खेल में शिक्षा  की भावना को भी बल मिल रहा है। बहुभाषायी ज्ञान समृद्ध हो रहा है। बच्चों की सृजनात्मक क्षमता विकास व प्रतिभा प्रदर्शन में यह एक महत्वपूर्ण उपकरण बनती जा रही है। विद्यालयों में पठन-पाठन का बड़ा ही मनमोहक वातावरण भी निर्मित होने लगा है। न केवल विद्यार्थियों में अपितु अध्यापकों में भी स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का भाव उत्पन्न हो रहा है। दीवार पत्रिका अभियान से अभिभावकों व समुदाय को भी जोड़ा जा रहा है जिससे वि़द्यालय व समुदाय की  दूरी भी कम हो रही है तथा संवाद का बेहतर वातावरण बन रहा है। साथ ही दीवार पत्रिका को पाठ्यक्रम से कैसे जोड़ा जाय? इस दिशा में अनेक कर्मठ अध्यापक काम कर रहे हैं। आशा है कि इस अभियान से शिक्षा  को एक नवीन दिशा व दशा मिलेगी। नवाचारी प्रवृत्ति के कारण विद्यालयों का नीरस वातावरण भी सरस बनेगा। साथ ही विद्यार्थियों के सामान्य ज्ञान में भी अधिक वृद्धि होगी। उनमें गणितीय व वैज्ञानिक अभिरूचि भी पैदा होगी।
 
  

Friday, 20 March 2015

दीवार पत्रिका बच्चों के भाषागत विकास में सहायक: कमलेश जोशी

        दीवार पत्रिका बच्चों के भाषागत विकास में सहायक: कमलेश जोशी
गैर सरकारी शैक्षिक संस्था लोकमित्र एवं आक्सफैम इंडिया द्वारा संयुक्त रूप से 15 मार्च 2015 को होटल गोमती, लखनऊ में एक शैक्षिक कार्यक्रम ‘स्कूल और शिक्षा व्यवस्था की बेहतरी में शिक्षकों की पहल‘ आयोजित किया गया। अपने तरह के इस पहले कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश के सात जिलों - रायबरेली, प्रतापगढ, बाँदा, लखनऊ, मुजफ्फरनगर, बस्ती, फतेहपुर से आये एक सैकड़ा से अधिक शिक्षक/शिक्षिकाओं ने अपने स्कूलों में किये गये शैक्षिक उन्नयन के नवाचारी प्रयासों को साझा करते हुए चित्रो का प्रदर्शन भी किया। इस अवसर पर बाँदा के शिक्षकों ने बच्चों की भाषायी दक्षता के विकास में दीवार पत्रिका की बड़ी भूमिका स्वीकारते हुए दीवार पत्रिका पर काम करते हुए उपजे अपने अनुभव भी बताये और विभिन्न स्कूलों में बच्चों द्वारा बनायी गई दीवार पत्रिकाओं की प्रदर्शनी भी लगाई। दीवार पत्रिकाओं के नाम बहुत प्रेरक एवं उत्साह जगाने वाले थे- जैसे ‘बाल झंकार‘, ‘इन्द्रधनुष‘, ‘बालवाणी‘, ‘बच्चों की बात‘ आदि। कार्यक्रम में उत्तराखण्ड में कार्यरत शिक्षक तथा दीवार पत्रिका को एक अभियान के रूप में लेने वाले शिक्षक महेश पुनेठा लिखित एवं लेखक मंच प्रकाशन से सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘दीवार पत्रिका और रचनात्मकता‘ का लोकार्पण भी किया गया। लोकार्पण के बाद वक्ताओं ने इस पुस्तक पर अपने विचार भी व्यक्त किये।
    कार्यक्रम के मुख्य वक्ता कमलेश जोशी (अजीम प्रेमजी फाउण्डेशन, ऊधम सिंह नगर में कार्यरत) ने कहा कि दीवार पत्रिका बच्चों की भाषागत विकास में एक सशक्त साधन है। बहुत कम लागत पर तैयार यह बाल पत्रिका बच्चों की रचनात्मकता को प्रकट होने का भरपूर अवसर प्रदान करती है। यह अभिव्यक्ति का सहज, सस्ता एवं सर्व सुलभ साधन है। आगे बोलते हुए जोशी ने कहा कि हर शिक्षक को अपने विद्यालय में बच्चों के साथ दीवार पत्रिका पर काम करते हुए इसे कक्षा शिक्षण में एक संसाधन के रूप मंे प्रयोग करने की दिशा में सोचना चाहिए। इससे बच्चों में प्रबंधन एवं संपादन कौशल का विकास होता है।
    आक्सफैम इंडिया के विनोद सिन्हा ने विचार रखते हुए कहा कि दीवार पत्रिका बच्चों में साहित्यिक अनुराग उत्पन्न कर उनमें न केवल पठन संस्कृति विकसित करती है अपितु परिवेशीय घटना क्रम को लिखने के लिए प्रेरित भी करती है। इससे बच्चों में अपने आस पास हो रहे सामाजिक, शैक्षिक एवं सांस्कृतिक बदलावों को महसूस करने की एक समझ पैदा होती है। लोकमित्र के राजेश कुमार ने कहा कि मुझे इस पुस्तक की तलाश कई दिनों से थी। मुझे खुशी है कि आज प्रदेश के सात जिलों के नवाचारी शिक्षकों के बीच इस पुस्तक को लोकार्पित करते हुए गर्व का अनुभव कर रहा हूँ। शिक्षा को हम सामाजिक बदलावों के आधार के रूप में देखते हैं। दीवार पत्रिका में बच्चों की सहभागिता से उनमें इस मुहिम को और बल प्रदान करती है।
दीवार पत्रिका अभियान से जुड़े शिक्षक प्रमोद दीक्षित ‘मलय‘ ने दीवार पत्रिका की रचना प्रक्रिया, उपयोगिता एवं चुनौतियों की चर्चा करते हुए कहा कि यह एक हस्तलिखित पत्रिका है जिसे एक कैलेंडर की तरह दीवार पर लटकाया जा सकता है जहां से बच्चे आसानी से पढ़ सकें। बच्चों से एकत्र सामग्री यथा कविता, कहानी, चित्र, चुटकुले, विद्यालय एवं गांव के समाचार, पहेलियां, स्कूल की गतिविधियां, पत्र, किसी का साक्षात्कार, संपादकीय, प्रेरक प्रसंग आदि को किसी चार्ट पेपर पर चिपका कर कुछ साज-सज्जा कर दी जाती है। इसे ‘वाॅल मैगजीन‘ भी कहा जाता है। यह बच्चों में लेखन क्षमता का विकास करती है। दीवार पत्रिका के माध्यम से हुए सामाजिक बदलावों की चर्चा करते हुए आगे कहा कि लोकसाहित्य, कला एवं संस्कृति को बचाये रखने में दीवार पत्रिका की बडी भूमिका है। इस पर काम करने से बच्चों के अन्दर सामूहिकता, समरसता, नेतृत्व क्षमता आदि मानवीय गुण विकसित होते हैं।
 उपस्थित शिक्षकों ने दीवार पत्रिका सम्बंधी प्रश्न भी किये। उस अवसर पर लोकार्पित पुस्तक ‘दीवार पत्रिका और रचनात्मकता‘  को बड़ी संख्या में शिक्षकों द्वारा खरीदा गया। संचालन राजेश कुमार ने किया। कार्यक्रम में शिक्षाविद एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं की उपस्थिति ने प्राण फूंके। अनूप शुक्ल ने सबका आभार व्यक्त किया।  प्रवीण त्रिवेदी, अमृत लाल, संजय, रामकिशोर पाण्डेय, क्षमा शर्मा आदि उपस्थित रहे।
प्रस्तुति: प्रमोद दीक्षित ‘मलय‘ , अतर्रा, जिला बाँदा, उ0 प्र0

Friday, 30 January 2015

पू0 मा0 वि0 बरेहण्डा की यात्रा डायरी

प्रमोद दीक्षित ‘मलय’ जी का शिक्षा और बच्चों के प्रति समर्पण अद्भुत है। शिक्षा के मुद्दों पर लिखना ,शिक्षा से संबंधित साहित्य को पाठकों तक पहुंचाना और बच्चों की रचनात्मकता को विकसित करने के लिए नित शिक्षकों, शिक्षाविदों और बच्चों से संवाद करना उनकी दिनचर्या के अंग हैं। शैक्षिक दखल और ‘दीवार पत्रिका:एक अभियान’ को गति प्रदान करने में उनका योगदान महत्वपूर्ण हैं। पिछले दिनों अत्यधिक ठंड के चलते उ0प्र0 में स्कूल बंद होने के कारण वह बहुत बेचैन थे कि स्कूलों में बच्चों से मिलना नहीं हो पा रहा है। जैसे ही स्कूल खुले वह एक स्कूल जा पहुुंचे। प्रस्तुत है उनकी एक दिन की यात्रा डायरी, इस आशा से कि आप भी दीवार पत्रिका से जुड़े अपने अनुभव इसी अंदाज में लिख भेजेंगे-
आज पू0 मा0 वि0 बरेहण्डा गया । पहुँचते ही बच्चों ने घेर लिया। सबकी चाह थी कि पहले मैं पहले उनकी कक्षा में चलूँ। कोई हाथ पकडे था तो कोई बैग। मैंने सभी कक्षाओं में आने की बात कही लेकिन असल लडाई तो बस यही थी कि मैं पहले किनकी कक्षा में चलूँगा। खैर, मेरी काफी मान-मनौव्वल के बाद कक्षा- 8 से मेरी यात्रा प्रारम्भ हुई । बाहर धूप में ही बच्चे बैठे थे। बातचीत शुरू ही हुई थी कि कक्षा-7 के बच्चे भी वहीं आ डटे। लगभग एक महीने की लम्बी छुट्टियों के बाद हम लोग मिल रहे थे। इस एक महीने के अपने अनुभव बच्चों ने साझा किए । विभिन्न प्रकार के खेलों की चर्चा, घर में बने पकवानों की चर्चा, खेत-खलिहान की बातें, मकर संक्रान्ति पर पडोस के गाँव बल्लान में लगने वाले ‘चम्भू बाबा का मेला‘ की खटमिट्ठी बातें। गुड़ की जलेबी, नमकीन और मीठे सेव, गन्ना (ऊख),  झूला मे झूलने की साहस और डर भरी बातों के साथ साथ नाते-रिश्तेदारों की बातें, दादी और नानी की कहानी की बातें, गोरसी में कण्डे की आग में मीठी शकरकन्द भूनकर खाने की स्वाद भरी बातें और न जाने क्या क्या, हां, थोडा बहुत पढने की बातें भी।
बातें पूरी हो चुकने के बाद (हालाकि बच्चों की बातें कभी पूरी होती नहीं) ‘‘चकमक ‘‘ के दिसम्बर अंक में कक्षा- 8 के बच्चों के छपे गुब्बारे वाले प्रयोग पर परस्पर विचार-विमर्श हुआ। आगामी मार्च अंक के ज्यामितीय प्रयोग पर अभ्यास हुआ। ‘‘ खोजें और जानें ‘‘ के पिछले अंक में कवर पर छपे यहाँ की ‘बाल संसद‘ के चित्र पर भी बच्चों ने अपने और अपने माता पिता के अनुभव बताये। दीवार पत्रिका के आगामी अंक के कलेवर पर संपादक मण्डल के साथ बातें करके मुद्दे तय हुए। यह भी निर्णय हुआ कि  अब हर अंक पर एक साक्षात्कार अवश्य छपेगा। मनोज और केशकली मिलकर अपने प्रधानाध्यापक श्री रामदयाल जी का साक्षात्कार लेंगे। साक्षात्कार क्या है और क्यों? साक्षात्कार कैसे लें, क्या और कैसे बातें करें किन मुद्दों पर किस किस तरह से प्रश्न किया जा सकता है। मिल रहे उत्तर से प्रश्न कैसे पकडें आदि बिन्दुओं पर थोडी बातें हुईं। थोडी ही देर में वे दोनो बच्चे एक 10-12  प्रश्नों की प्रश्नावली तैयार कर लाये।वास्तव में प्रश्न चुटीले थे और उनसे प्र0 अ0 का पूरा चित्र उभरने वाला था। मुझे बेहद खुशी हुई । कौन कहता कि सरकारी विद्याालयों में प्रतिभाएं नहीं है, कोई सोच नही है। उन्हे ऐसे बच्चों से मिलना चाहिए।
थोडी ही दूर पर कक्षा - 6 के बच्चे बैठे थे। वे मुझे देख रहे थे कि मैं कब  उनकी कक्षा में पहुंचू। तो 7 और 8 के बच्चों से बातें कर मैं 6 में गया। बच्चों ने जाते ही शिकायत की कि स्कूल की दीवार पत्रिका में हमारी कक्षा के बच्चों की रचनाएं नहीं छापी जाती हैं। उनकी नजर में हमारी कहानी, कविता,लेख और समाचार ठीक नहीं है। मैं उनकी बातें देख-सुनकर हँस भी रहा था और सोच भी रहा था कि बडे बच्चों द्वारा इस प्रकार का व्यवहार ठीक नहीं है। थोड़ी देर में बच्चों ने अपना निर्णय सुना दिया कि वे अब अपनी दीवार पत्रिका अलग से निकालेंगे। मैनेे उनसे पत्रिका बनाने की प्रक्रिया को जानना चाहा तो उन सबने विस्तार से न केवल चर्चा की बल्कि संपादन टीम भी बना डाली। संपादक- कोमल, सह संपादक- राकेश, कला संपादक- शिवदेवी, समाचार संपादक - दिनेश और प्रबन्ध संपादक- पंकज। पत्रिका के नाम पर चर्चा हुई। वे मुझसे कोई अच्छा-सा नाम चाह रहे थे। मैने कहा कि वे  स्वयं तय करें। उमंग, तरंग, बाल बगीचा, फुलवारी, अमराई, सबेरा जैसे नाम आये लेकिन बात बन नहीं रही थी। हर नाम पर बस हाँ, हूूँ चल रहा था। तभी मंजू ने सुझाया कि इन्द्रधनुष कैसा रहेगा। सभी बच्चे एक साथ बोल पड़े, हाँ, यह ठीक है। तो कक्षा- 6 की दीवार पत्रिका का नाम हुआ - ‘‘इन्द्रधनुष‘‘। उनकी अपनी सामग्री भी लगभग तैयार है जिसमें कहानी, कविता, पेड़ पर लेख, चुटकुले, गाँव के समाचार, स्कूल की गतिविधियाँ आदि शामिल हैं। जिन्हे संजोया है अंजलि, सुनैना, युवराज, राकेश, आशा, वर्षा, पंकज, शिवदेवी ने। कोमल ने लिखा है एक धारदार संपादकीय, कि क्यों जरूरत पड़ी अपनी अलग पत्रिका निकालने की। महीने में दो बार निकलेगी, 1 और 16 को।
 विश्वास है ‘इन्द्रधनुष‘ फरवरी की 1 तारीख को अपने सात रंगों की छटा के साथ प्रकट होगा। मुझे प्रतीक्षा है और आपको भी जरूर होगी, ऐसा लगता है।

Sunday, 18 January 2015

गोदान पर कक्षा दस की एक छात्रा की समीक्षा

पिछले दिनों यूनिट टेस्ट में बच्चों से अपनी पढ़ी किसी पुस्तक की समीक्षा लिखने के लिए कहा। नीलम विष्ट ने गोदान पर यह समीक्षा लिखी जिसे पढ़कर मैं गदगद हो गया। मुझे विश्वास नहीं हुआ कि कक्षा दस में पढ़ने वाली एक छात्रा भी पहले ही ड्राफ्ट में ऐसी समीक्षा लिख सकती है। उपन्यास को देखने की उनकी दृष्टि से मैं अवाक् रह गया। मुझे कुछ शंका भी हुई कि हो न हो किसी ने मदद की होगी लेकिन पता चला कि नीलम एक ऐसे परिवार की छात्रा हंै जिनके परिवार में दूर-दूर तक साहित्य का कोई वातावरण नहीं है। यह उपन्यास उन्होंने स्कूल के पुस्तकालय से लेकर पढ़ा। जब यह समीक्षा लिखी गई यह उपन्यास उनके पास नहीं था। एक बार पढ़कर स्मृतियों के आधार पर लिखा गया है। भले ही नीलम अभी अपने भाषा को तलाश रही हैं तथा विचारों में क्रमबद्धता आनी शेष है लेकिन यह अभ्यास से हासिल हो जाएंगी। वैसे भी हिंदी उनकी दूसरी भाषा है जिस पर धीरे-धीरे ही अधिकार पाया जा सकता है। नीलम कविता भी लिखती हैं। उनकी कुछ कविताएं मैंने पिछले दिनों अपने ब्लाॅग में प्रस्तुत की थी। आज पढ़िए उनके द्वारा लिखी यह समीक्षा -
मैंने गोदान पढ़ा, जिसमें नायक होरी आसामी होता है तथा उसकी पत्नी धनियां खेती-बाड़ी में उसकी मदद करती है। धनिया को एक विरोधी नायिका के रूप में प्रस्तुत किया गया है जबकि नायक होरी बिना किसी बात के विरोध किए समाज के उच्च वर्गों द्वारा कहे जाने वाली बातों को स्वीकार करता है। इस प्रकार वह खेतीहर मजदूर बन जाता है। इसके विपरीत गोबर गांव में काम करके पिसना नहीं चाहता है। वह नहीं चाहता है कि परिश्रम वह करे और खाए कोई और।
प्रेमचंद जी ने इस उपन्यास में महिलाओं की स्थिति का वर्णन किया है जिसमें विधवा विवाह,दहेज प्रथा आदि को उजागर किया गया है। इसमें मिस मालती जैसी महिलाएं भी दिखाई गई हैं जो दूसरों की सेवा में तत्पर रहती हैं और फिलोसफर की तरह जिंदगी व्यतीत करना चाहती है। यह उस समाज की पढ़ी-लिखी महिला है जो अपने परिवार का भरण-पोषण करती है। यह लखनऊ की प्रसिद्ध डाॅक्टर है। वह आधुनिक बातों को मानने वाली महिला है। इसके विपरीत मिसेज खन्ना जो कविताएं रचती है तथा घर के सारे बंधनों से बंधी है। भोग-विलास के साम्राज्य में रहकर भी उन्हें भोग-विलास तनिक भी न छू पाया है। वह एक त्यागी तथा आदर्श महिला है। मिस खन्ना बेहद कंजूस है। उन दोनों में कोई बात नहीं पटती क्योंकि मिस खन्ना पूरी तरह भोग-विलास में डूबे हुए व्यक्ति हैं। मिस्टर मेहता एक फिलास्फर व्यक्ति हैं जो प्रसिद्ध डाॅक्टर भी हैं। वे अपने पैसे को लोगों की सेवा में अर्पित करते हैं तथा समाज के बंधनों से मुक्त किताबी कीड़े हैं अर्थात पुस्तकों का पीछा नहीं छोड़ना चाहते हैं। ये शहर के जीवन को दर्शाते हैं। इस प्रकार यह रचना काफी रोचक है।
 मेरे विचार से इसमें धनिया काफी हद तक सही होती है। यदि होरी की जगह धनिया कर चुकाने जाती तथा लोगों के सामने बेझिझक बात रखने का उसमें जो साहस है ,उसे होरी नहीं दबाता तो शायद वह खेतीहर मजदूरी करने और इस प्रकार के ऋणों में डूबने से मुक्त रहते।यह उपन्यास यह प्रेरणा देता है कि लोगों का सीधापन ही उनके पतन का कारण बनता है। हमें अपने हितों की रक्षा के लिए विरोध करना भी आना चाहिए होरी बेवजह ही ऋण चुकाता था।
 जब गोबर ने किसी विधवा स्त्री से शादी कर ली यह कोई गलत कार्य नहीं था। होरी भी इससे सहमत था लेकिन महाजनों के कहने पर बिरादरी के भय से उसने अपने घर को ही दांव में लगा लिया। इसी तरह भोला की गाय 80 रुपए की थी जबकि होरी के बैल 300 रुपए के थे। गांव वाले उसके साथ थे फिर भी उसने बैलों को ले जाने से नहीं रोका। यह सब उसके सीधेपन का ही परिणाम था। इस वजह से होरी के घर में चूल्हा भी नहीं जलता। यह बहुत बड़ी दीनता थी। आज भी हमारे समाज में ऐसे लोग व्याप्त हैं। उन्हें इससे सीख लेनी चाहिए।
  होरी के महाजन उससे व अन्य गांव वालों से प्रत्यक्ष रूप से कर लेते थे लेकिन उनकी बिरादरी अप्रत्यक्ष रूप  से लूटते थे ,इस प्रकार किसान अधिक गरीबी में डूबते थे जिससे उनका चूल्हा भी नहीं जल पाता था लेकिन वे कोल्हू के बैलों की तरह पिसते रहते हैं। यह उपन्यास हमें विरोध करने का साहस देता है।     

Tuesday, 13 January 2015

उड़ई की हिलजात्रा


तीज-त्यौहार हमारे जीवन के हिस्से होते हैं .हर महीने कोई न कोई त्यौहार हो जाता है .बच्चों का इनके प्रति विशेष उत्साह होता है .वे हर त्यौहार में  पूरे उल्लास से भाग लेते हैं .यह कहना गलत नहीं होगा कि किसी भी त्यौहार का वास्तविक आनंद बच्चे ही उठाते हैं . बच्चे जिन त्योहारों को मनाते हैं वे दीवार पत्रिका के लिए विषय सामग्री के अच्छे स्रोत हो सकते हैं . कोई त्यौहार विशेष कब ,क्यों और कैसे मनाया जाता है ? आदि के बारे में बच्चे अच्छा लिख सकते हैं . इससे जहाँ बच्चे की लेखन क्षमता का विकास होता है ,वहीँ अवलोकन व खोज करने की आदत विकसित होती है ,साथ ही वह अपने लोक संस्कृति के बारे में अधिक गहराई से जानने लगता है ;लोक के प्रति लगाव पैदा होता है तथा वह उसका विश्लेषण करने लगता है . मेरी हमेशा कोशिश रहती है कि कोई भी तीज-त्यौहार या मेला हो उसके बारे में बच्चों से कुछ न कुछ लिख लाने के लिए कहा जाय . इससे मुझे भी उस क्षेत्र की रीति-रिवाज और परम्पराओं की जानकारी मिलती है जिसका उपयोग में सामाजिक विज्ञानं पढ़ाते हुए संसाधन के रूप में भी करता हूँ . मकर संक्रांति को कुमाऊ में ''घुघुतिया ''का त्यौहार मनाया जाता है ,मैंने कक्षा नौ के बच्चों से इस बारे में लिख लाने को कहा है जिसे दीवार पत्रिका में प्रस्तुत किया जाएगा . बाद में कभी आप लोगों के लिए .आज पढ़िए  उड़ई की हिलजात्रा के बारे में जिसे -सुनील सामंत कक्षा-दस  ने लिखा था जिसे राजकीय इंटर कालेज देवलथल की दीवार पत्रिका से लिया गया है ........
उड़ई की हिलजात्रा

पिथौरागढ़ जिला मुख्यालय से लगभग पच्चीस किमी की दूरी पर मेरा गांव उड़ई स्थित है। यह तीनों ओर पहाड़ी और एक ओेर खेेत-खलिहानों से घिरा है। मेरा गांव अपने पारंपरिक रीति-रिवाजों और धार्मिक मान्यताओं के कारण दूसरे गांवों से भिन्न है। यहां पर अनेक पर्व मनाए जाते हंै। ‘गमरा’ उनमें से एक है। इसको बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। इसके बारे में कहा जाता है कि भगवान शिव का विवाह श्रावण मास मंे हुआ था।इसी कारण इस पर्व को श्रावण मास के सोमवार से प्रारंभ करते हैं। इस पर्व में महिलाएं एवं बच्चे अधिक भागीदारी करते हैं।पहले दिन पार्वती की घास की प्रतिमा बनाकर उसे सजाया जाता है। तत्पश्चात उसकी पूजा की जाती है।दूसरे दिन महेश्वर(शिव) की घास की प्रतिमा बनाकर सजायी जाती है।फिर शिव-पार्वती दोनों के वैवाहिक तौर पर पूजा पाठ किए जाते हैं। इसके बाद आठ दिनों के ‘खेल’ लगते हैं जिसमें झोड़े-चांचरी आदि कुमाउंनी गीत गाए जाते हैं। आठवें दिन महाकाली मनाई जाती है और अंतिम दिन हिलजातरा का आयोजन किया जाता है। यहां पर अनेक दुकानें भी लगाई जाती हैं। सभी जगह के लोग इस पारंपरिक त्यौहार को देखने आते हैं। इसमें शिव का वाहन बैल एवं गण के रूप मंे लोग मुखौटे लगाकर अनेक करतब दिखाते हैं। अन्त में लख्याभूत दिखाया जाता है। इसे भी शिव का गण माना जाता है। कहा जाता है कि इसी से इस गांव की सुख-समृद्धि जुड़ी है।
 हिलजातरा के अंत में शिव और पार्वती की घास की प्रतिमाओं को एक बारात की तरह नाचते-गाते ,ढोल-दमुवा बजाते हुए नैना देवी मंदिर में रख दिया जाता है। यहां अंतिम खेल लगाए जाते हैं। इस तरह इस पर्व का समापन हो जाता है।