दीवार पत्रिका और रचनात्मकता
-निर्मला तोदी
दीवार पत्रिका के बारे में लगातार जानकारी
मिल रही थी और मैं उससे काफी प्रभावित भी थी और अभी और भी ज्यादा हूं। इस विषय में
महेश पुनेठा जी से फोन पर लंबी बातें भी हुई। पुस्तक के आते ही फोन करके पुस्तक
मंगवाई। पुस्तक पहुंची भी उसी स्पीड में। एक बार मैं पूरी पुस्तक पढ़ डाली, फिर दुबारा पढ़ना पड़ा। महेश जी इस अभियान
को बड़ी ही संजीदगी से चला रहे हैं और लोग भी उसी तत्परता से जुड़ते जा रहे हैं। सभी
अध्यापक और छात्र बधाई के पात्र हैं। "दीवार पत्रिका एक अभियान' का एक ब्लाग भी है और मेल से भी इस अभियान
की बहुत सी रोचक और नियमित जानकारी मिलती है। फिर भी पुस्तक पढ़ना इस अभियान का एक
सार्थक स्वरूप है। पुस्तक में महेश जी के अनुभव, अन्य अध्यापकों के अनुभव, छात्रों
की राय और अनुभव दीवार पत्रिका की कार्यशाला का विस्तृत वर्णन, दीवार पत्रिका क्यों और कैसे बच्चों को
इससे होने वाले लाभ का विस्तृत लेखा जोखा है। जैसे कि यह भी गंगोत्री से गंगासागर
की यात्रा हो। इसका उद्गम तो हैं, टेढ़ी-मेढ़ी
राहें भी हैं, अविरल बहने वाली
धारा है। इसमें गंगासागर नहीं है इसका समापन कहीं नहीं है।
इस पुस्तक में महेश जी के पंद्रह वर्षों
की लंबी यात्रा के अनुभव हैं। जिसमें
संघर्ष भी हैं और सफलता भी। एक सुखद यात्रा है। पुनेठा जी वर्ष 2000 के आसपास
डीपीईपी के शिक्षक प्रशिक्षण में नए-नए शिक्षण के प्रयोगों से परिचित हुए। जिसमें
एक "बाल अखबार' भी
था। उन्हें यह बच्चों के रचनात्मकता के विकास की एक सार्थक और उपयोगी गतिविधि लगी।
वे उससे बहुत प्रभावित हुए।
प्रशिक्षण से लौटने के बाद प्राथमिक
विद्यालय "कुंजनपुर' में
महेशजी ने सबसे पहले "बाल अखबार' का प्रयोग शुरू किया। बाल साहित्य से, बाल पत्रिकाओं से सामग्री इकट्ठी करके "बाल अखबार' तैयार किया जाने लगा लेकिन एकल अध्यापकीय
स्कूल में कार्यभार अधिक होने के कारण बच्चों
में रुचि जगाने के समय के अभाव के
कारण यह उपक्रम चल नहीं पाया। फिर भी नए -नए प्रयोग लगातार होते रहे। कहते हैं ना
कि काम करते-करते अनुभव होता है, अनुभवों
के आधार पर आगे सफलता मिलती है। महेश जी लगातार हिम्मत और उत्साह के साथ जुटे रहे।
वर्ष 2009 में "राजकीय इंटर कालेज' देवस्थल आए। वहां पर दीवार पत्रिका का पहला अंक "नवांकुर' निकला, जो रोलर बोर्ड पर बनाया गया था। इस अंक में भी पत्र-पत्रिकाओं से रचनाओं
का संकलन करके चिपकाया गया था। उन्होंने महसूस किया कि बच्चों को अधिक से अधिक काम
करने के अवसर मिलने चाहिए क्योंकि बच्चे सबसे अधिक आनंद खुद करने में महसूस करते
हैं। इसलिए उनकी लिखी रचना दीवार-पत्रिका में लगनी चाहिए। इस सोच के साथ नवांकुर
का दूसरा अंक बच्चों की लिखी कविताओं का काव्य-विशेषांक निकला। एक छात्रा को
पत्रिका का संपादक नियुक्त किया गया, 10-15 बच्चों का संपादकीय मंडल का गठन हुआ। भूमिका विवरण भी हुआ। 30-35
बच्चों का एक समूह बनाया गया जिसे "बाल बौद्धि प्रकोष्ठ' नाम दिया गया। सभी काम छात्र रुचि लेकर कर
रहे थे, महीने में एक
पत्रिका भी आ रही थी। फिर भी महेश जी संतुष्ट नहीं थे। क्योंकि पत्रिका में अभी भी
बहुत सी साभार सामग्री थी।
उनके अनेक अथक प्रयास और प्रयोगों द्वारा
बच्चों में रचनाशीलता बढ़ रही थी, फिर
भी उन्हें महसूस हो रहा था कि बच्चों में अभी भी उत्साह बढ़ाना रुचि जगाना जरूरी
है। बाद में यह देखा गया कि जो बच्चे दो-चार पंक्तियां भी नहीं लिख पाते थे, वे दो-चार पन्नों का संस्मरण लिखने लगे।
उन्हें विषय दिए जाने लगे। बच्चों की भाषाई दक्षता बढ़ी। इससे उनके मन को पढ़ने का
भी मौका मिला। इस दौरान बच्चों से
"मेरी किताब' भी
बनवाई गयी। ये किताबें पुस्तकालय में सुरक्षित हैं। कभी-कभी दीवार पत्रिका में
सामग्री कम पड़ जाने से सम्पादकीय इससे सामग्री भी ले लेते हैं।
जैसा कि सब प्रयोगों में होता है, दीवार पत्रिका में भी काफी उतार चढ़ाव आए। बच्चे बीच-बीच में उदासीन
हो जाते थे। लेकिन महेश जी हार मानने वाले नहीं थे। एक और बात वे बच्चों पर किसी
भी प्रकार का दबाव नहीं डालना चाहते थे। वे कक्षाओं में पत्रिका का उद्देश्य समझाते
थे। साथ ही साथ उसकी विकास यात्रा के बारे में भी बताते रहते थे। दीवार पत्रिका
में फिर नया सम्पादक मंडल बना। पत्रिका का नाम रखा गया "कल्पना'।
बच्चे अब पहले से बेहतर काम करने लगे। वे
खुद सोचने लगे कि अंक में नया क्या दिया जाए। सम्पादकीय भी स्वयं ही लिखने लगे।
मैं समझ सकती हूं कि एक अच्छा "गाइड', "गुरु' मिल जाए तो छात्र
काम बहुत जल्दी सीख जाते हैं। रुचि लेने लगते हैं और नई-नई आइडिया आने लगती है।
पुस्तक में बच्चों के लिए कार्यशाला की
विस्तृत जानकारी है। कार्यशाला के अनुभव को एक डायरी की तरह प्रस्तुत किया गया है जो सिर्फ दीवार पत्रिका के लिए ही
उपयोगी नहीं है, अन्यथा भी चलाई
जाए जो लाभ होगा। कार्यशाला में बच्चों के मनोविज्ञान को समझते हुए उनकी प्रतिभा
और अभिरुचियों को पहचान कर, उन्हें
नई दिशा में आगे बढ़ाना, नए
अवसर प्रदान करना, समाज
के प्रति संवेदनशीलता और सामूहिकता की भावना विकसित करना, इन सभी विषयों पर सजगता से काम करना था। उनके अनुभव बताते हैं यदि
बच्चों की सृजनात्मकता को कम उम्र से ही प्रोत्साहित किया जाए और उन्हें अनुकूल
माहौल मुहैया कराया जाए तो उसके परिणाम बहुत सकारात्मक होते हैं। बच्चों को लगातार
अध्ययन के लिए प्रेरित करना और लेखन की बारीकियों से भी अवगत कराना जरूरी है।
उन्हें रूपक और बिंबों का प्रयोग भी सिखाया गया जिनके कुछ प्रयोग पुस्तक में भी
है। जो बहुत प्रभावशाली और सुंदर है। मुझे महेश जी की सबसे खास बात लगी कि "कार्यशालाओं की सफलता इस बात पर सबसे ज्यादा
निर्भर करती है कि वहां बच्चों को आनंद आए। रचनात्मकता के प्रति सम्मान पैदा हो, वहां डांट डपट और किसी भी प्रकार का दबाव
न हो, कार्यशालाओं में
विभिन्न विधाओं के विशेषज्ञ हो और बाल मनोविज्ञान की समझ रखते हों।" कार्यशाला में सभी अच्छा हो जरूरी नहीं लेकिन अगर
उनमें लिखने-पढ़ने की कुछ करने की अभिरुचि हो जाए तो वह कार्यशाला की बड़ी उपलब्धि
होगी।
कार्यशाला के बारे में पढ़ते-पढ़ते मेरा मन
मुझसे कह रहा था कि काश मुझे भी ऐसा सौभाग्य मिला होता, ऐसा प्लेटफार्म तो मैं भी आज बेहतर काम कर पाती। आजकल बहुत सी संस्थाएँ, क्लब, कार्यशालाएँ (ॠड़द्यत्ध्त्द्यत्ड्ढद्म ड़ठ्ठथ्र्द्र, च्द्वथ्र्थ्र्ड्ढद्ध ड़ठ्ठथ्र्द्र, कन्द्यद्धठ्ठ ड़थ्ठ्ठद्मद्मड्ढद्म) हैं
लेकिन दीवार पत्रिका एक लगातार चलनेवाली प्रक्रिया हैं जिसमें सभी स्कूल जानेवाले
बच्चे हिस्सा ले सकते हैं। अलग से दर्ज नहीं कराना पड़ता है।
बच्चे स्वयं दीवार पत्रिका को लेकर किस
तरह सोचते हैं यह जानना भी बहुत जरूरी है। उस पर ही कार्य योजना की सफलता निर्भर
करती है। पुस्तक में बच्चों की राय उनके अनुभव और सुझाव भी दिए गए हैं। अलग-अलग
विद्यालयों के दीवार पत्रिका के संपादकों के साक्षात्कार भी हैं। जिनको पढ़कर मालूम
होता है कि वे पत्रिका को लेकर बहुत गंभीर और सजग हैं। बड़ी आशाएँ रखते हैं। उनसे
पत्रिका की आख्या भी लिखवाई गई है, वे
मेहनत करना चाहते हैं। पत्रिका के प्रति सकारात्मक नजरिया रखते है। उनके अनुसार
इससे उनकी भाषा परिष्कृत हुई है। लेखकीय क्षमता और आत्म वि·ाास में वृद्धि हुई है। हिचकिचाहट दूर हुई
है और पढ़ने का शौक बढ़ा है।
किसी प्रयोग की प्रमाणिकता उसकी व्यापकता से सिद्ध होती है। दीवार पत्रिका से संबंधित
यह प्रयोग चार दर्जन से अधिक विद्यालयों में प्रारंभ हुआ है और निरंतर बढ़ता जा रहा
है। पुस्तक में शिक्षकों के अनुभव और राय दिए गए हैंं।
उत्तरकाशी से "रेखा चमोली' का कहना है,
"इस अभियान के बाद मैं बच्चों को ज्यादा मुखर, आत्मवि·ाासी, स्वयं पढ़ने और सीखने को उत्सुक तथा स्कूल की हर गतिविधि में भाग लेने को
तैयार पाती हूँ।' नाचनी पिथौरगढ़ से
"राजीव जोशी' का
कहना है, "बच्चों में दीवार
पत्रिका के पहले और बाद में स्पष्ट अंतर दिखाई पड़ता है, बच्चों ने महंगाई, भ्रष्टाचार, कन्या भ्रूण हत्या, पर्यावरण
आदि विषयों पर कविताएँ लिखी। दीवार पत्रिका बनाने की
प्रक्रिया बच्चों की प्रिय और नियमित गतिविधि बन गई।'
चिंतामणि जोशी का कहना है कि वे दीवार
पत्रिका की ताकत को लेकर बहुत आशान्वित हैं। वे दीवार पत्रिका की भाषाई दक्षता और
रचनात्मकता की अभिव्यक्ति का सशक्त साधन मानते हैं। उन्हें अनुभव हुआ कि बच्चों का
मन कोमल है, कहीं भी कभी भी
विचलति हो सकता है। कोई भी उन्हें बरगला सकता है। इसलिए मार्गदर्शक के आँख, कान खुले होना बहुत जरूरी है।
नरैनी बांदा उत्तरप्रदेश से प्रमोद
दीक्षित मलय जी दीवार पत्रिका कोे गांव के प्रमुख स्थानों पर भी टांगते हैं। लोग न
केवल पढ़ते हैं अपनी प्रतिक्रिया भी देते हैं। "दीवार पत्रिका' स्कूल की चहारदीवारी लांघकर समाज में भी अपना प्रभाव और संबंध स्थापित करते हुए
बदलावों की आधारभूमि बन सकती है। पुस्तक में दीवार पत्रिका क्या है? क्यों है? कैसी होनी चाहिए, कैसी
बनाई जाए, इसके निर्माण की
चुनौतियाँ, अनुभव, दीवार पत्रिका के लिए रोचक सामग्री, उसके रुाोत, साधन, तरीके, नियम, स्थाई स्तम्भ क्या हो, क्या
हो सकते हैं और रोचक गतिविधियाँ, "कार्यशाला' का
विस्तृत और संंपूर्ण ब्यौरा है। दीवार पत्रिका "क्यों' में बारह कारण विस्तार से दिए गए हैं।
जिसमें अभियान की उपयोगिता और विकास के बारे में जानकारी मिलती है। पुस्तक में
बच्यों की रचनाएँ भी छपी हैं बच्चों के काम करते हुए की तस्वीरें भी हैं।
आज टेलीविजन और टेक्नोलॉजी के जमाने में
बच्चे किताबों से दूर जा रहे हैं। दीवार पत्रिका बच्चों को फिर से पुस्तकालय लेकर
जा रही है। उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित कर रही है। जो बच्चे किसी भी कारण से
विद्यालय की दीवार पत्रिका में भागीदारी नहीं ले सकते है,
उन्हंे पढ़ते हैं और आकर्षित होना भी स्वाभाविक है।
इस तरह दीवार पत्रिका की रोशनी पूरे विद्यालय को चकमकाती जरूर होगी।
आज पढ़ाई नौकरी पाने, कैरियर बनाने का साधन मात्र रह गई है।
अभिभावक भी यही चाहते हैं कि बच्चे विज्ञान, कामर्स लेकर पढ़े। भाषाओ के प्रति विशेषकर हिन्दी के प्रति सभी
निरुत्साहित हैं। हमें समझना चाहिए कि भाषा और साहित्य हमें परिष्कृत करता है।
स्कूल में दीवार पत्रिका से जुड़कर वे अन्य
विषय तो पढ़ते ही हैं, साहित्य
के प्रति रूझान भी होता है। साहित्य उन्हें बहुर्मुखी बनाता है। बच्चों में यह समझ
पनपती है कि उन्हें किन विषयों में रुचि है। वे सही विषय का चयन कर सकते है।
दीवार कठोरता का प्रतीक है, लेकिन यहां बच्चों के कोमल मन को खंगाला
जा रहा है। वे सामूहिकता में काम करना सीख रहे हैं। मेरी समझ में "अभियान' नाम भी बहुत ही उपयुक्त है, क्योंकि यह कार्य एक बड़े अभियान के रूप
में पूरे देश में फैलाने का संकल्प लिए हुए दिन दुगुना रात चौगुना बढ़ रहा है।
पुस्तक पढ़कर दीवार पत्रिका की जो विस्तृत जानकारी मिली है वह इसके उद्देश्य की
सार्थकता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। पुस्तक "दीवार पत्रिका और
रचनात्मकता' अभियान का एक ऐसा
सार्थक फल है जो इस वृक्ष को फैलाने में बीज रूप से काम करेगा। इसे पूरे देश में
फैलाने की मनसा को तीब्र करेगा।