Tuesday 21 July 2015

दीवार पत्रिका जैसा प्रयोग मेरे जीवन में...

कुछ माह पहले लोकेश भाई से मुलाकात हुयी . भाषा को लेकर बहुत सारी बातें हुयी . उनके पत्रकारिता जीवन से जुड़े अनुभवों को सुना. वहां उन्होंने बच्चों की रचनात्मकता को सामने लाने के लिए बच्चों के अखबार जैसा कुछ काम किया. मुझे उसके बारे में जानना बहुत रुचिकर लागा.आशा है भविष्य में हमें उनके अनुभव विस्तार से जानने  को मिलेंगे. अभी प्रस्तुत है 'दीवार पत्रिका और रचनात्मकता ' को लेकर उनके विचार जिसे भाई राजीव शर्मा ने मुझे मेल से भेजा. 
दीवार पत्रिका जैसा प्रयोग मेरे जीवन में...
 दीवार पत्रिका के काम के बारे में मैंने काफी लोगों से सुना था..बागेश्वर के अध्यापक साथी हेम  पाठक से इस पर काफी चर्चा हुई थी..कुछ दिनों बाद महेश पुनेठा की दीवार पत्रिका किताब पढने का मौका मिला..काफी विस्तृत रूप से उन्होंने अपने अनुभवों को लिखा है..पढ़ कर मज़ा आ गया...
ज़यादा अच्छा इस लिए भी लगा क्योंकि अपने निजी जीवन में मै दीवार पत्रिका जैसी चीज़ का ही उपयोग काफी दिनों से कर रहा हूँ...
पत्रकारिता छोड़ने के बाद सबसे जयादा चिंता मुझे यही रहती है की कहीं लिखना छूट न जाए..पढना तो मुझे हमेशा से ही भाता है और कहीं न कहीं इसके लिए वक़्त निकाल ही लेता हूँ पर लिखना कई बार हो नहीं पाता..इतनी भागा दौड़...इतने सारे मुद्दे....कभी कभी तो मन करता है की छोड़ों यह काम और फिर वापिस पत्रकारिता मे लौट जाओं...
अच्छी बात यह है की घर का माहोल काफी अलग है...मै और अर्पिता अक्सर यह ही बात करते हैं की कैसे अपनी लेखनी को और बेहतर बनाये...औरइसके लिए जरुरी है अपने आप को प्रेरित करते रहना...
मै तो हमेशा अपने आप को लिखने के लिए प्रेरित करता रहता हूँ...इसके लिए मैंने एककाम शुरू किया जो काफी हद तक दीवार पत्रिका जैसा ही है ....२०१४ में अल्मोड़ा शिफ्ट करने के बाद अपने घर में दीवार पर एक चार्ट लगाया है औरजो भी लिखता हूँउसे उस चार्ट पर दर्ज कर देता..कविता, शायरी और लेख..
ऑफिस से जब भी घर आता हूँ..सबसे पहले नज़र पड़ती हैउस दीवार पर टंगे चार्ट पर..कई दिन तक जब उस चार्ट को ख़ाली पाता हूँ तो बहुत गुस्सा आता है खुद पर की क्यों मै और मेहनत नहीं करता लिखने के लिए....
खैर कुछ वक़्त निकाल कर मैंने कुछ अच्छे लेख और कविता लिखडाली.... एक लेख तो विदेश की एक मैगज़ीन में भी छप गया और पैसा भी इतना मिला की फरवरी माह में उससे नार्थ ईस्ट का एक टूर भी लगा लिया..
सबसे ज़यादा ख़ुशी तब हुई जब मेरी तरह हीअर्पिता ने भी खुद को लिखने के लिए प्रेरित करने की लिए ऐसे ही दीवार पर चार्ट लगाया..हालाँकि अर्पिता मुझसे कई गुना बेहतर लेखक है..अभी भी रिपोर्टर के रूप में काम करती हैं..बहुतउम्दा लिखती हैं.... पर शायद हर कोई अपने आप को और बेहतर बनाने की कोशिश करता है और यह ही सोच कर अर्पिता ने भी यह कोशिश की...
इन सब के बीच सबसे मज़ेदार चीज़ हुई की हमारी प्यारीसी नन्ही सी दोस्त, बिटिया मनु ( हमारे मकान मलिका संजय जोशी की बेटी)  ने भी ठीक वैसा ही चार्ट दीवार पर लगाया और जो भी वह लिखती उस पर चिपका देती..उस की लिखी कविता पढ़ कर खूब मज़ा आया..और तो और हमारे दो दोस्त दुलोउस और सुमन जब हमसे मिलने अल्मोड़ा आये तो मनु की लिखने की कोशिश से काफी प्रभावित हुए और दिल्ली वापिस जाने के बाद वहां से उन्होंने कुछ किताबे कूरियर से अल्मोड़ाभेज दी मनु के लिए..
महेश भाई की दीवार पत्रिका के वैसे तो बहुत सारे फायदे हैं जैसा उन्होंने अपनी किताब मे दर्ज किया है पर मेरे खुद के अनुभव से एक सबसे बड़ा फायदा है खुद को मोटीवेट करने का..लिखने के प्रति
उन्होंने किताब की शुरू में लिखा भी है की इस तरह की पत्रिका का उपयोग बच्चे ही नहीं बल्कि बड़े लोग भी कर सकते हैं...
इसी बीच पिथोरागढ़ आने का मौका मिला और ख़ुशी की बात यह हुई की महेश भाई से मिलने का मौका भी मिला...वह अपने व्यस्त जीवन से वक़्त निकाल कर सुबह होटल में ही मिलने चले आये...
बातचीत शुरू हुई और कब एक घंटे से ऊपर का वक़्त निकल गया पता ही नहीं चला..
बहुत सारे मुद्दों पर बात हुई...उनके अनुभवों को सुनने से इतना होसलों मिलता है...
और ख़ुशी होती है यह जानकार की कैसे अगर शिक्षक चाहे तो एक विचार का उपयोग अपने स्कूल के बच्चों की मदद’ के लिए कर सकता है..
गुफ्तुगू के दौरान ये भी निकला की मुझे अपने अनुभव ( चार वर्ष तक मैंने कैसे टाइम्स ऑफ़ इंडिया के एक संस्करण जो पूरी तरह से बच्चों के लिए था का सम्पादन किया और उस संस्करण की २००० प्रतियों सेशुरुआत हुई थी और जब मैंने टाइम्स छोड़ा तब उसकी चालीस हज़ार प्रतियाँ बिकती थी) लिख कर महेश भाई से साझा करने चाहिए...
महेश भाई के इस विचार मेंमुझे दम लगा क्योंकि नंबर्स से ज़यादा मसला यहाँ उन अनुभवों का है जो मुझे इस संस्करण पर काम करते हुए हुए...
कैसे बच्चों के लिए हम टॉपिक्स का चयन करते..कैसे बच्चे और अध्यापक मिल कर कई दफा पूरा का पूरा अखबार निकाल लेते..महेश भाई से बात करते करते मुझे अपनेटाइम्स ऑफ इंडिया के दिनो की याद आ गयी..आँखों केसामने पूरा अतीत सामने आ गया...
कुछ देर में महेश भाई ने विदा ली और मैंने निश्चय किया कीअपने अनुभवों को लिख कर जरुर साझा करूँगा..लिखना जारी है...इंशाल्लाह कुछ दिनों में इस पर जरुर लिखूंगा...
और साथ ही जारी रहेगा दीवार पत्रिका जैसे प्रयोग से खुद को प्रेरित करते रहना...आने वाले दिनों में कोशिश करूँगा की महेश भाई का यह प्रयास ज़यादा से ज़यादा लोगों , बच्चों और बड़ों दोनों तक जाये क्योंकि इसका हमारे लिखने और पढने की क्षमता पर बहुत प्रभाव पड़ता है...

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